अपनों ने ही छला है मुझे,
परायों में छलने की हिम्मत कहां थी।
जो भी किया अपनों ने ही किया,
परायों को कुछ करने की ज़रूरत कहां थी।
आई तो मैं इस जहां के वास्ते ही थी,
पर इस दुनियां में मेरे लिए जगह कहां थी।
खड़ी रह सकूं इतनी भी ज़मीं नसीब ना हुई मुझे,
क्योंकि इस दुनियां में इंसान तो थे
पर इंसानियत कहां थी।
हर किसी की आंखों में कांटों सी खटकती रही मैं,
फूल समझे मुझे ऐसी इस दुनियां में मासूमियत
कहां थी।
नफ़रत ही की मुझसे हर किसी ने,
किसी की भी मुझसे प्यार करने की नियत कहां थी।
मंज़िल मुझे मेरी मिल गई थी,
पर वो हक़ीक़त कहां थी।
जो भी इंसा इस जहां में आये उसे अपने ढंग से
जीने का हक़ होता है,
पर ख़ुदा ने लोगों को दे भेजी ऐसी नसीहत कहां थी।
✍️ रीना कुमारी प्रजापत ✍️
सर्वाधिकार अधीन है

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



The Flower of Word by Vedvyas Mishra




