वक्त की हिमाकत समझ से परे है
सारी सियासत समझ से परे है
नहीं कोई बेदाग अब है नजर में
ऐसी हिदायत समझ से परे है
कहें किसको अपना नहीं सूझता है
खुली ये बगावत समझ से परे है
मसीहा थे समझे कातिल है निकला
है कैसी शराफत समझ से परे है
शहर में सब पिटते हैं सरे आम हरदम
जुलम की हिकारत समझ से परे है
रहा दास दुनियां में अब किसका भरोसा
आदमी की अदावत समझ से परे है.