सहजगामी
तू रिश्ता है ऐसा जिस पर मैं विश्वास करूं,
तू तोड़ दे अब उम्मीदें आगे मैं क्या करूं।
ये मेरे सवाल नहीं तेरी नुमाइश सी झलकती है,
अगर पर्वत हो सामने तो सागर से क्या कहूं।
कुदरत तो चांद पर भी धब्बा लगाती है,
मेरी किस्मत में तेरा एहसास ना हो तो,
जलती हुई बाती भी बुझ जाती है।
काला रंग भी हो तो चलेगा,
गोरा होने पर पिछले जमाने की याद दिलाती है।
उस आईने की तड़प ही ऐसी थी, कि हम लेके उसे घूमने लगे,
चेहरे देखने पर अब वो शीशे भी टूटने लगे।
गर्माए तारे की तकदीर में चांद की नमी का क्या कसूर,
शहर की आबादी में पढ़े लिखे का क्या वजूद।
ढलता सवेरा भी क्या करे सुबहो शाम जो हो,
सितारे शर्मा के क्या करें जब बादलों की रात हो।
अब तो पहेलियां खेलने लगी हैं जमाने की सीढ़ियां,
चढ़ना उतरना सब भूल गए।।
- ललित दाधीच।।