रिश्ते बोले— “अब तो समय दे!”
मैं बोला— “पहले खुद को भी कुछ रमय दे!”
माँ बोली— “बेटा, घर कब आएगा?”
मैं बोला— “जब मुकाम को गले लगाएगा!”
सपने कांच थे, राहें उबड़-खाबड़,
मन की दीवारें थीं थोड़ी लड़खड़।
सपनों के घोड़े पर चढ़ा जो निकला,
वही समझ पाया सफर का ये पगला!
कभी भीड़ में तन्हा, कभी तन्हाई में भीड़,
कभी खुद से आगे, कभी खुद से पीछे,
दुनिया कहे— “आराम कर ले!”
मैं कहूँ— “थोड़ा और संग्राम कर ले!”
चाय ठंडी, रोटी जली,
पर मेहनत की आग तो अंदर जली!
कभी आँखों में सपने सजा लिए,
कभी गम के प्याले भी गले लगा लिए।
जो गिरा, वो उठा, जो टूटा, वो जुड़ा,
जो हंसा, वो रोया, जो रोया, वो लड़ा!
हर दिन एक इम्तिहान था,
हर रात एक ताजमहल का निर्माण था!
अब दुनिया कहे— “तेरी मिसाल देंगे!”
जो कल जलते थे, आज दीये जलाएंगे!
अब माँ कहे— “बेटा, तूने कमाल किया!”
अब पिता बोले— “तूने जो ठाना, वही हाल किया!”
समझ आया—
सपनों की बोली नहीं लगती,
सपनों की होली नहीं जलती,
बस मेहनत की धुन पर,
हर कीमत चुकानी पड़ती!

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



The Flower of Word by Vedvyas Mishra




