अजी सुनिए!
प्रेम किया था हमने,
कोई किराए की कोठी नहीं थी
जो सालभर में बदल जाए!
हमने तो जड़ें जमाई थीं,
धरती से रिश्ता बनाया था,
पर जनाब,
धरती तो हमारी थी,
बस पेड़ किसी और का निकला!
हमने दी धूप में छाँव,
बरसात में छत,
हर मौसम में समर्पण का प्यार,
पर वो ठहरे मेहमान,
लिया सुख, पी चाय,
और छोड़ गए घर के बाहर!
अब क्या करें?
बैठे रहें, रोते रहें?
या समझें कि प्रेम,
समर्पण का दूसरा नाम है,
पर आत्मसमर्पण का नहीं!
तो जनाब, जब लगे कि—
रीढ़ की हड्डी चटखने लगी है,
सांसें भारी हो रही हैं,
चेहरा आईने में अजनबी लगता है,
तो समर्पण को सलाम कीजिए,
और ‘खुद’ को प्रणाम कीजिए!
प्रेम वो नहीं जो तुम्हें मिटा दे,
प्रेम वो जो तुम्हें बना दे,
जो प्यार तुम्हारा नाम तक भूल जाए,
उससे रिश्ता निभाना बेकार है,
बढ़िए आगे, संभलिए खुद को,
क्योंकि “खुद से बड़ा कोई प्यार नहीं!”

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



The Flower of Word by Vedvyas Mishra




