काश उस दिन में आ गई होती,
आज तन्हा न रो रही होती।
रिश्ते-नाते मरोड़ कर आई।
सपनों के महल छोड़ कर आई,
कागजी घोड़ों पर सवारी कर,
कुल की मर्यादा तोड़ कर आई।
काश गिरकर संभल गई होती,
कुछ तो बदनामी कम हुई होती।
जब वो आए थे लिवाने मुझको,
उनमें बस खामियां दिखी मुझको।
बेवफाओं से वफादारी निभा,
मैंने दुत्कार दिया था उनको।
काश कुछ मैं भी झुक गई होती,
शान से आज रह रही होती।
ताज पहना तलाक का जब से,
खास अपने खफा हुए तब से,
हमसफर मिल गया नया उनको,
मुंह छुपाए मैं फिर रही सबसे।
काश संग उनके रह रही होती,
गोद मेरी भी भर गई होती।
काश उस दिन में आ गई होती,
आज तन्हा न रो रही होती।
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गीतकार-
अनिल भारद्वाज , एडवोकेट,
उच्च न्यायालय,ग्वालियर