एक दिन ऐसा आये,
जब आदमी आदमी को न मारे —
घृणा की गोली से नहीं,
नफ़रत की भाषा से नहीं,
न धार्मिक, न जातीय खून से सने हुए हाथों से।
एक दिन ऐसा आये,
जब ज़मीन फट जाए,
और उसमें समा जाए वो सारी आग —
जो इन्सान ने इन्सान के खिलाफ पाल रखी है।
प्रलय आ जाए,
क्योंकि ये जीवन अब जीवन नहीं लगता।
ये साँसें अब बोझ हैं,
और रिश्ते — बस सवाल।
काश ज्वालामुखी फूट पड़े,
काश बादल बर्फ़ नहीं, अंगारे बरसाएं,
काश धरती थरथराए —
लेकिन इंसानियत की लाशों से नहीं,
बल्कि इस पाप की गर्द को धोने के लिए।
तीसरा युद्ध भी आये,
पर बंदूकें न चलें —
चलें तो सिर्फ़ आत्मा की पुकार,
जो कहे — “बस, अब और नहीं।”
मर जाए सब,
पर उस पीड़ा से नहीं जो इंसानों ने बनाई —
मरें उस मौन में,
जिसमें प्रकृति हमें फिर से गले लगाती है।
एक अंतिम विसर्जन —
जहाँ देह नहीं,
सिर्फ़ आत्मा राख हो जाए
और हवाओं में बिखर जाए
एक शांति बनकर।
“क्योंकि मृत्यु तो स्वाभाविक है,
पर यह जीवन — अब नहीं रहा।”