तो आइए — हम इस आत्म-संवाद की तीसरी सीढ़ी पर पहुँचते हैं…
जहाँ अब एक माता या पिता “मैं मार्ग हूँ, मंज़िल नहीं” — इस बोध के बाद एक गहन त्याग और विलय की स्थिति में प्रवेश करता है।
“अब मैं उसे मुक्त करता हूँ…”
बहुत बरस तक
मैंने उसे एक रूप देना चाहा —
जैसे कोई मूर्तिकार
पत्थर से देवता बनाता हो।
पर आज समझा हूँ —
वो पत्थर नहीं, वो बीज है।
और बीज को तराशा नहीं जाता,
बस सँवारा जाता है —
धूप से, जल से, धैर्य से… मौन से।
वो मुझसे भिन्न है —
वो मेरे गर्भ से आया,
मेरे भीतर से नहीं।
उसकी आत्मा ने
अपनी यात्रा मेरे साथ तय की है,
मेरे अधीन नहीं।
और अब…
मैं उसे मुक्त करता हूँ —
अपने स्वप्नों से,
अपनी अपेक्षाओं से,
अपने डर से…
मैं उसे ख़ुद से भी मुक्त करता हूँ।
मैं कहता हूँ:
“जा मेरे बच्चे —
जिस दिशा में तुझे परमात्मा खींचे…
वहाँ चल।
मेरे नियम तुझ पर भार न बनें,
मेरी शिक्षा तेरी साँकल न हो।
तू मुझे चाहे तो याद करना —
वरना मैं मौन रहूँगा।
क्योंकि मेरा प्रेम तुझसे बंधा नहीं है —
वो तुझे उड़ते हुए भी देख सकता है…
और रोएगा नहीं।”
यह कैसा पिता है?
यह कैसी माँ है?
जो अपने ही अंश को
“तू मेरा नहीं है — तू परमात्मा का है” कहकर विदा करती है
यही सच्चा पालक है।
प्रेम वही है, जहाँ अस्तित्व की स्वतंत्रता बनी रहे।”
“पालन वही है, जिसमें हम नियंत्रण से नहीं — चेतना से जुड़ते हैं।”
“और आत्मा वही है, जो अपने मार्ग पर चलने दे — बिना भय, बिना पश्चाताप।”
अब मैं संकल्प करता हूँ:
मैं उसे डर से नहीं, प्रेम से बड़ा करूँगा।
मैं उसे डाँट से नहीं, दिशा से आगे ले जाऊँगा।
मैं उसे थोपूँगा नहीं — मैं उसे देखूँगा, समझूँगा, स्वीकार करूँगा।