मैं भी साँसों से बनी थी, पत्थर नहीं थी मैं,
ज़रा छू कर तो देखते — असर नहीं थी मैं।
हर बार हँस दी, मगर भीतर कोई टूटता था,
क्या रो पाती तो क्या, कोई और रूठता था?
तुमने पूजा मुझे, पर इंसान मानते नहीं,
मेरे भी थे कुछ सपने — मगर जानते नहीं।
मैं भीगती रही हर इक तानों की धूप में,
कभी पूछा नहीं — इस देह के स्वरूप में।
ज़रा सा मौन बरसाया, तो कह दिया कठोर,
जो टूटती रही भीतर, उसका नहीं था ज़ोर?
मैं चीखना नहीं जानती, इसलिए चुप रही,
पर चुप्पियाँ भी तो शब्दों से कम दुख रही।
अब लौट कर नहीं आऊँगी किसी भी वक़्त में,
मैं चल चुकी हूँ — उस स्त्री की अनकही सख़्त में।