डर सा गया हूँ उसी पल से तब से,
शीशे ने मुझको बताया है जब से,
हर रात कोने में दुबका पड़ा हूँ,
सोते में सपने हैं आते अलग से,
कमरे में अब रोज रोता है कोई,
बहुत शोर हँसता सा होता है कोई,
आँखो खुली मेरे रोंयें खडे़ हैं,
नींदों में काँटे पिरोता है कोई,
आईना मुझे राज़ बतला रहा था,
एक दिन मैं सोया वो जगता रहा था,
शक तो मुझे भी कुछ पहले से ही था,
डर सा रहा था वो हकला रहा था,
उसने कहा तरी परछाई काली,
जिसकी बनावट ही मासूम सी है,
दिन में जो तेरे कदम चूमती है,
रातों में भूतों के संग घूमती है,
उतने में शीशा बिखर के ज़मीं पे,
नजर मारी कोई नहीं था कहीं पे,
ग़ुम हो गया खो गया अक्स मेरा,
अभी जो खड़ा था वो मेरे यहीं पे,
हवा में हँसी की कसक आ रही थी,
परछाई भगती चली जा रही थी,
दरवाजे के पीछे कोई खड़ा था,
घनी लाल सी एक चमक आ रही थी,
मेरे पेट में दर्द बढ़ने लगा था,
पसीना भी सिर पर उतरने लगा था,
दरवाजा छूने की हिम्मत नहीं थी,
चक्कर भी सर को पकड़ने लगा था,
हर रात परछाई मिलती है उससे,
हँस के सुनाती है दिनभर के किस्से,
मनाने की कोशिश करीं लाख लेकिन,
वो बोली बता दो बताना है जिससे,
हर रात मेरे घर में खेल हो रहा है,
परछाई भूतों का मेल हो रहा है,
कोई तो निकालो, कोई तो बचालो,
मेरा घर अब मेरी नकेल हो रहा है..................
विजय वरसाल..............