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The Flower of WordThe Flower of Word by Vedvyas Mishra The Flower of WordThe novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra

कविता की खुँटी

        

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Dastan-E-Shayara By Reena Kumari Prajapat

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कविता की खुँटी

                    

खुद से बातें करता हूँ - अशोक कुमार पचौरी 'आर्द्र'

खुद से बातें करता हूँ,
कभी कभी,
और कभी हर वक़्त,
क्यों तेरे भोलेपन से,
इतना लगाव होगया?,
ऐसा क्यों हुआ?,
यही सोचता विचारता रहता हूँ,


केवल प्रश्न बाकी हैं,
उत्तर नहीं मिलते,
और कभी जब सोचकर,
थक जाता हूँ,
तो कुछ ज्यादा ही सोचता हूँ,
प्रश्न बाकि हैं लेकिन,
प्रश्नो में भी शब्द नदारद हैं,
तुमसे पूछना चाहे तो,
मिलते नहीं हो,
हो कहाँ पर?,
कहाँ रहने लगे हो?,

क्यों तुम मेरे प्रश्नो के उत्तर,
उत्तर के शब्दों की तरह लगते हो?,
एकदम नदारद,यकायक गायब,
ऐसा क्यों होरहा है?,
ऐसा क्यों होता है?,
क्या आगे भी होता रहेगा?,
फिर लौट फिरकर वही प्रश्न,
वही सोचविचारी,
जैसे कि मैं अब मैं रहा नहीं,
शायद तुममे खो गया हूँ कहीं,
और न जाने तुम कहाँ खो गयी हो,
ना में खुद को खोज पा रहा हूँ,
और ना ही तुम्हे,
और न ही मेरे प्रश्नों के उत्तरों को,

क्या यह कभी समाप्त होगा?,
या यह सिलसिला यूँ ही चलता रहेगा?,
प्रश्न अनगिनत,
एक से दो से चार होते जा रहे हैं,
लिखते हुए भी तेरे ही ख्याल आरहे हैं,
न जाने किस हाल में तुम हो,
और मेरा भी मुझे पता नहीं,

क्यों बेकार की उलझनों में फंस गया हूँ?,
यही सब सोचता रहता हूँ,
खुद से बातें करता हूँ,
कभी कभी,
और कभी हर वक़्त,
क्यों तेरे भोलेपन से,
इतना लगाव होगया?,
ऐसा क्यों हुआ?,
यही सोचता विचारता रहता हूँ


----अशोक कुमार पचौरी 'आर्द्र'


यह रचना, रचनाकार के
सर्वाधिकार अधीन है
 अशोक कुमार पचौरी 'आर्द्र'     खुद से बातें करता हूँ      कभी कभी      और कभी हर वक़्त      क्यों तेरे भोलेपन से      इतना लगाव होगया      ऐसा क्यों हुआ      यही सोचता विचारता रहता हूँ      केवल प्रश्न बाकी हैं      उत्तर नहीं मिलते      और कभी जब सोचकर      थक जाता हूँ      तो कुछ ज्यादा ही सोचता हूँ      प्रश्न बाकि हैं लेकिन      प्रश्नो में भी शब्द नदारद हैं      तुमसे पूछना चाहे तो      मिलते नहीं हो      हो कहाँ पर      कहाँ रहने लगे हो      क्यों तुम मेरे प्रश्नो के उत्तर      उत्तर के शब्दों की तरह लगते हो      एकदम नदारद     यकायक गायब      ऐसा क्यों होरहा है      ऐसा क्यों होता है      क्या आगे भी होता रहेगा      फिर लौट फिरकर वही प्रश्न      वही सोचविचारी      जैसे कि मैं अब मैं रहा नहीं      शायद तुममे खो गया हूँ कहीं      और न जाने तुम कहाँ खो गयी हो      ना में खुद को खोज पा रहा हूँ      और ना ही तुम्हे      और न ही मेरे प्रश्नों के उत्तरों को      क्या यह कभी समाप्त होगा      या यह सिलसिला यूँ ही चलता रहेगा?      प्रश्न अनगिनत      एक से दो से चार होते जा रहे हैं      लिखते हुए भी तेरे ही ख्याल आरहे हैं      न जाने किस हाल में तुम हो      और मेरा भी मुझे पता नहीं      क्यों बेकार की उलझनों में फंस गया हूँ      यही सब सोचता रहता हूँ      खुद से बातें करता हूँ 


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रचना के बारे में पाठकों की समीक्षाएं (4)

+

मनोज कुमार सोनवानी "समदिल" said

आ हा हा.….प्रीत की धारा नहीं, दरिया नहीं,पूरा समंदर धरती पर उड़ेल दिया है आपने। वाह। शब्दों में एहसासों की खूबसूरत जादूगरी। आपकी दिल में कुछ खास होने लगा है, धड़कन आपकी हमें एहसास होने लगा है।बज रहे हैं संगीत,नाच रहा है मन, अंदर ही अंदर,"रास" होने लगा है। वाह क्या बात,सहज सरल भाषा में प्रेम की पावन एहसासों का सुंदर चित्रण।👌👌👌🌹🌹🙏🙏

अशोक कुमार पचौरी 'आर्द्र' replied

बहुत आभार आदरणीय प्रसंशा के लिए, सादर प्रणाम

पवन कुमार "क्षितिज" said

जो खुद से बात करने लगता है, उसको लोग चाहे दीवाना कहें, मगर फिर औरों से बात करने का बड़ा अच्छा सलीका आ जाता है, जैसा कि आपको है ही..। बहुत अच्छे से घुलामिला लिया है आपने कविता में किसी को...👌👌👌🙏🙏

अशोक कुमार पचौरी 'आर्द्र' replied

बहुत आभार आदरणीय प्रसंशा के लिए, सादर प्रणाम

इक़बाल सिंह “राशा“ said

लाजवाब सर यही तो प्रेम की वह अवस्था है जो किसी भाग्य के. धनी को ही नसीब होती है बहुत बढ़िया

अशोक कुमार पचौरी 'आर्द्र' replied

बहुत आभार आदरणीय प्रसंशा के लिए, सादर प्रणाम

रीना कुमारी प्रजापत said

खुद से मत कीजिए बातें उन्हें ढूंढिए और उन्हीं से कीजिए👏👏बहुत बढ़िया

अशोक कुमार पचौरी 'आर्द्र' replied

आदरणीय को सादर प्रणाम एवं समीक्षा के लिए विशेष आभार

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