खुद से बातें करता हूँ,
कभी कभी,
और कभी हर वक़्त,
क्यों तेरे भोलेपन से,
इतना लगाव होगया?,
ऐसा क्यों हुआ?,
यही सोचता विचारता रहता हूँ,
केवल प्रश्न बाकी हैं,
उत्तर नहीं मिलते,
और कभी जब सोचकर,
थक जाता हूँ,
तो कुछ ज्यादा ही सोचता हूँ,
प्रश्न बाकि हैं लेकिन,
प्रश्नो में भी शब्द नदारद हैं,
तुमसे पूछना चाहे तो,
मिलते नहीं हो,
हो कहाँ पर?,
कहाँ रहने लगे हो?,
क्यों तुम मेरे प्रश्नो के उत्तर,
उत्तर के शब्दों की तरह लगते हो?,
एकदम नदारद,यकायक गायब,
ऐसा क्यों होरहा है?,
ऐसा क्यों होता है?,
क्या आगे भी होता रहेगा?,
फिर लौट फिरकर वही प्रश्न,
वही सोचविचारी,
जैसे कि मैं अब मैं रहा नहीं,
शायद तुममे खो गया हूँ कहीं,
और न जाने तुम कहाँ खो गयी हो,
ना में खुद को खोज पा रहा हूँ,
और ना ही तुम्हे,
और न ही मेरे प्रश्नों के उत्तरों को,
क्या यह कभी समाप्त होगा?,
या यह सिलसिला यूँ ही चलता रहेगा?,
प्रश्न अनगिनत,
एक से दो से चार होते जा रहे हैं,
लिखते हुए भी तेरे ही ख्याल आरहे हैं,
न जाने किस हाल में तुम हो,
और मेरा भी मुझे पता नहीं,
क्यों बेकार की उलझनों में फंस गया हूँ?,
यही सब सोचता रहता हूँ,
खुद से बातें करता हूँ,
कभी कभी,
और कभी हर वक़्त,
क्यों तेरे भोलेपन से,
इतना लगाव होगया?,
ऐसा क्यों हुआ?,
यही सोचता विचारता रहता हूँ
----अशोक कुमार पचौरी 'आर्द्र'
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