कापीराइट गजल
मेरे शहर का मंजर
मेरे शहर का मंजर बङा अजीब सा था
उस का दर्द हमारे दिल के करीब सा था
झूठ के शोरूम में बनाते हैं एक झूठ नया
खोट नीयत में मगर यह अजीब सा था
जब तमन्ना भी दिल की नहीं हुई पूरी
मोहब्बत की दुकां में शोर अजीब सा था
कोशिश की बहुत हमने ये सत्ता पाने की
मगर साया भी कोई उसका करीब ना था
ये हर बार नई कोशिश में उलझते ही गए
एक खौफ नया दिल में ये अजीब सा था
मिलती है एक नई मात हर एक चाल में
हर परिणाम कोशिशों का अजीब सा था
मेरे हाथ में नहीं अब कोई भी मुद्दा यादव
कसक हमारे दिल में बङा अजीब सा था
सर्वाधिकार अधीन है