भावनाओं के धुंधले पड़ते ही
अधर मौन हो जाते हैं
प्राण रहित देह भी
निष्प्राण की ओर चले जाते हैं
हैं नहीं कोई विरुद्ध ना ही कोई हैं सगा
जिसका जितना काम यहां उतना उसका दाम यहां
जितनी जिसकी अपेक्षाएं उतना उसका तिरस्कार यहां
जितनी रही निश्छल भावनाएं सब यहां छली गई
कलुषित मन विच्छेदित हृदय
असाध्य हुई मेरी साधना
वंचित रहा जो प्रेम से
बस हृदय वही शेष रहा
विमुख हुआ जीवन यहां विमुख हुई समस्त इच्छाएं
कुचक्रों के रण में खड़ा मैं असहाय अभिमन्यु जैसा
भेदना है जीतना है इन चक्रव्यूह रचनाकारों से
फिर निखरना और सवरना है सूर्य जितना तेज होकर
चलो छोड़ो जाने भी दो
मेरी पीड़ा मेरी रही
है नहीं तुममें ये साहस
जो सुन सको मेरा कहा
हूं नहीं मैं तनिक भी कायर ना ही कायरता परिचय मेरा
संदेहास्पद नहीं तनिक भी ना ही हारा है जीवन मेरा
कालचक्र का काल प्रभाव टल ही जाएगा एक दिन
फिर लिखूंगा संदेश अपना फिर होगा अंत मेरा
----माधवी त्रिपाठी