मेरे मन पर इक पुरानी सी धूप रहती है,
जैसे कोई चुप्पी हर रोज़ मुझसे कहती है।
कभी उगते सूर्य सा तपता है मेरा मन,
तो कभी शामों की चुप — आँसू में बहती है।
हर किसी की बात में ढूँढता हूँ मैं खुद को,
पर सदा एक साया भीतर ही उलझती है।
मैं हँसूँ भी तो वो गहराई में कांपता है कुछ,
ये रूह की चुप्पी बहुत कुछ सहती है।
कभी लगे — मैं सब कुछ जान गया हूँ अब,
तो कोई पीड़ा नई राह कहती है।
ये मन, ये मौन — कोई साधु है शायद,
जो श्मशान में बैठकर प्रेम की कथा कहती है।
तुम पूछते हो, मैं क्यों टूटकर भी ज़िंदा हूँ?
क्योंकि मेरी ख़ामोशी भी मुझे दुआएँ देती है।