मयखाने की शामें धुआँ हवा-हवाई।
खुलते ही कलई बनावटी हँसी आई।।
रास्ते बदले बदले पर शोर वही लगता।
जिससे दोस्ती पक्की उनके मुँह खाई।।
रोशनी धीमी धीमी माहौल अटपटा सा।
एक अजीज की कमी सता रहीं जुदाई।।
रिमझिम बरसना भी उसे आता 'उपदेश'।
आत्मा कचोटती खड़ाबड़ा जाती खुदाई।।
नाजुक घड़ी में ख्वाहिशें कमजोर पड़ती।
याराना याद आता और याद आती भलाई।।
- उपदेश कुमार शाक्यावार 'उपदेश'
गाजियाबाद