पहाड से निकलकर छलांगे लगाती।
एक सिरा छोड़कर दूजे से टकराती।।
झरने के धार जैसी निर्मल शीतल सी।
ठंडी हवाओ से अति वेग से दहाडती।।
जमीं पर पहुँच कर निर्वचन मैदान के।
ऊँचे नीचे टेढे मेढ़े पत्थरो से टकराती।।
ऐसी धारा से निकलता मधुर संगीत।
हरेक पत्थर के 'उपदेश' गले लगती।।
- उपदेश कुमार शाक्यावार 'उपदेश'
गाजियाबाद