मैं अपनी ही चिता हूँ
मैं जल चुकी हूँ —
बिना किसी विधि, बिना किसी मंत्र,
बिना किसी शमशान की अनुमति के।
मैंने खुद को उठाया,
और खुद को अग्नि दी।
ना कोई पुरोहित था,
ना कोई रोनेवाला।
बस मैं थी,
और मेरी बुझती साँसें।
तू आया था, ज़िंदगी —
फूल लेकर।
फिर मुस्कराया — “अब तो मुक्ति मिल गई न?”
तुझे क्या पता,
कि ये चिता मैंने तुझसे बचने को जलाई थी।
लोग कहते हैं,
स्त्रियाँ सात जनम साथ निभाती हैं…
मैंने एक जनम में ही
सात बार जन्म लिया —
हर बार जलकर।
मैंने जब पहला प्रेम छोड़ा,
तो जली।
जब पहली बार ‘ना’ कहा —
तो जली।
जब माँ बनी,
और फिर अकेली —
तो भी जली।
जब अपनी आत्मा चुनी —
तो सबसे अधिक जली।
अब मैं ठंडी हो रही हूँ —
पर राख नहीं बनी।
मैं अब भी धधक रही हूँ —
भीतर की लपटों में,
शब्दों के बिना।
कोई कहे —
ये अंत है,
पर मैं जानती हूँ —
मैं अपनी ही चिता हूँ,
और यही मेरी उत्पत्ति है।
अब मैं अग्नि हूँ,
जो किसी और की आग नहीं माँगती।
मैं खुद को जलाती हूँ —
और खुद को जन्म देती हूँ।