मैं अपनी हथेली में जलती स्त्री हूँ —
जिसकी रेखाएँ अंगार हैं,
और लकीरों में बसी है
एक ख़ामोश आग की कथा।
मुझे ईश्वर ने नहीं रचा —
मुझे मेरे ही टूटने ने गढ़ा।
हर बार जब मैंने
ख़ुद को छोड़ा किसी के लिए,
एक नया जन्म हो गया —
लेकिन उसी देह में।
मेरे हाथों में प्रेम नहीं लिखा —
वहाँ सिर्फ़ एक छाया है —
जो बार-बार लौटती है
और पूछती है —
“क्या अब भी तुझमें बचा है समर्पण?”
मैंने चाहा —
कि एक बार कोई
मेरे मन के भीतर की चुप्पी को पढ़ ले,
लेकिन सबने सिर्फ़ मेरी मुस्कान से
अपना उत्तर बना लिया।
मेरे चंद्र पर्वत पर नहीं हैं
सुख के सपने —
वहाँ तो एक स्त्री बैठी है,
जो रातों को
अपने ही गर्भ से प्रश्न पूछती है —
“क्या मैं कभी माँ थी?”
हर बार जब मैंने ईश्वर को पुकारा —
उसने मेरी हथेली चूम ली,
और कहा —
“तू स्वयं वह अग्नि है
जिसमें मेरी छाया निवास करती है…”
⸻
शारदा