बेटी —
“माँ, जब मैं मुस्कुराती हूँ
पर भीतर एक सूखा कुआँ छलकता है —
तू कैसे जान लेती है?”
माँ —
“क्योंकि बेटी,
तेरी मुस्कान के नीचे जो नदी बहती है,
उसकी गूँज
मुझे अपने गर्भ की धड़कन जैसी लगती है।”
बेटी —
“माँ, जब कोई मुझे कहता है
‘तू बहुत संवेदनशील है’,
क्या वो सच में मुझे समझते हैं?”
माँ —
“नहीं, वे बस देख पाते हैं
तेरे चेहरे की भीगी झील को —
पर मैं जानती हूँ,
उस झील में तूने
कितने सपनों की राख घोली है।”
“माँ, क्या तू कभी थकी नहीं?”
“हर बार जब तू टूटी,
मैंने अपने भीतर तुझे दोबारा रचा।
मैंने अपनी नींदों को तेरी रातें बनाया,
तेरे आँसू पीकर
तेरे होंठों पर लोरी रखी।”
बेटी —
“माँ, दुनिया क्यों नहीं देख पाती
कि मैं सिर्फ़ एक देह नहीं —
मैं एक दुःख की परछाई हूँ?”
माँ —
“क्योंकि दुनिया को
औरतों की ख़ामोशी से डर लगता है।
तेरी ख़ामोशी में जो आँधियाँ हैं,
वो मेरे सीने में पलती हैं —
मैं ही जानती हूँ,
तेरी टूटी हुई साँसों में
कितनी कहानियाँ अधूरी पड़ी हैं।”
“माँ, मैं थक गई हूँ ख़ुद को साबित करते-करते…”
माँ ने उसका माथा चूमा —
“मत कर…
तेरा होना ही एक प्रतिज्ञा है,
एक सम्पूर्ण कविता —
जिसे बस माँ ही पढ़ सकती है,
बिना उच्चारण किए।”
और फिर,
बेटी माँ की गोद में सिर रख
सिसकती रही —
जैसे कोई बहुत पुराना राग
आख़िरकार सुन लिया गया हो…
— “शारदा गुप्ता
(एक माँ के हृदय में गुँथी हुई कविता, जहाँ प्रेम मौन है, समझ आद्र है, और करुणा — शाश्वत)