इक सुन्दर 'कविता' सी हो खुद, 'शब्द' ओढ़े जो चले,
सोचना कैसा है इसमें, चलती फिरती 'नज़्म' हो,
देखने में ऐसे हैं लगतीं, 'शायरी' हो या परी,
'जिन्दादिल' हो 'शान' हो खुद, आपसे हैं 'महफिलें',
एक तरफ हैं 'आप' तो, दूजी 'हुनर' है आपका,
राह में संगीत बजता, घर से निकलते आप जब,
'रौशनी' होती है तुमसे, 'चांदनी' भी आपसे,
इक सुन्दर 'कविता' सी हो खुद, 'शब्द' ओढ़े जो चले।
'आप' चलती हैं, तो चलती हैं हवाएं, सन सनन,
आपकी पायल के घुंघरू भी बजे हैं, खन खनन,
'आप' निकलें राहों में जब, चाँद भी शर्माता है,
दिन में जब भी धुप बदले, छाँव निकले आसमान,
तब ही समझो आरहा है, आपका कोई काफिला,
हाँ यक़ीनन 'आप' ही बस आपसे, होता है ये,
इक सुन्दर 'कविता' सी हो खुद, 'शब्द' ओढ़े जो चले।
'बारिशें' होती हैं जब भी, मुस्कुराते 'आप' हो,
बस इतनी पहचान है काफी, कहने को यह 'आप' हो,
'आप' मिले कहीं राह में, या भरी 'महफ़िल' कहीं,
इतने निशाँ जेहन में है, हम कह सकें यह 'आप' हो,
सोचना कैसा है इसमें, चलती फिरती 'नज़्म' हो,
इक सुन्दर 'कविता' सी हो खुद, 'शब्द' ओढ़े जो चले।
----अशोक कुमार पचौरी 'आर्द्र'