कुछ ज़खम पैरों तले थे,
कुछ ज़खम असमान पे,
कुछ ज़खम छाती पे मेरी,
कुछ ज़खम सम्मान पे,
क्या कहूँ किससे कहूँ,
ज़ख्मों से ही फुरसत नहीं,
कुछ ज़खम मेरी वफा पे,
कुछ ज़खम एहसान पे,
हम हँसेंगे खिलखिला के,
कर रहे वादा ज़खम,
पीठ पे जा़दा ज़खम हैं,
पीठ पे जा़दा ज़खम...........................
कुछ ज़खम चुभने लगे और,
लाल वाले हो गए,
पैरों पे हँसते थे मेरे,
पैर छाले हो गए,
छालों में लिपटे वो साले,
साँप काले हो गए,
दर्द की कालिख में लथपथ,
पैर लाले हो गए,
इक ज़खम था दो बराबर,
इक ज़खम आधा ज़खम,
पीठ पे ज़ादा ज़खम हैं,
पीठ पे ज़ादा ज़खम..........................
सर्दियों में थे सिकुङते,
बारिशों में वो गले,
कुछ हैं तोह्फे़ आँधियों के,
कुछ हैं धूपों में जले,
वो हँसें तो दर्द हमको,
फिर भी दिल के हैं भले,
ख़ून का रिश्ता है मेरा,
ख़ून पी कर हैं पले,
कुछ ज़खम हैं माँस खाते,
कुछ ज़खम सादा ज़खम,
पीठ पे ज़ादा ज़खम हैं,
पीठ पे ज़ादा ज़खम..............................
मोटे ताजे चौङे चौङे,
दिख रहे हैं साँङ से,
सींचा हमने रोज़ उनको,
अपने ख़ूँ की धार से,
लाल बन बैठे हैं मेरे,
पाला इतने प्यार से,
कुछ हुए हैं ग़ुल की तरहा,
कुछ हुए ग़ुलनार से,
हम भी बन बैठे कन्हैया,
बन चुके राधा ज़खम,
पीठ पे ज़ादा ज़खम हैं,
पीठ पे ज़ादा ज़खम.............................
-विजय वरसाल.......................