इसी सिलसिले में ग़ज़ल कहूँ कि मैं 'इश्क़ हूँ कि मैं 'इश्क़ हूँ
यही बाज़गश्त सुना करूँ कि मैं 'इश्क़ हूँ कि मैं 'इश्क़ हूँ
तू कहीं फ़रेब था या नहीं मुझे क्या पता तू मुझे बता
मैं कहाँ कहाँ पे सुबूत दूँ कि मैं 'इश्क़ हूँ कि मैं 'इश्क़ हूँ
मुझे देख देख जला करे वो दिए की लौ मिरा क्या करे
वो तो आग है उसे क्या कहूँ कि मैं 'इश्क़ हूँ कि मैं 'इश्क़ हूँ
वही बे-ज़रर वही बे-नवा उसी एक दर पे पड़ा हुआ
न मैं टल सकूँ न मैं पल सकूँ कि मैं 'इश्क़ हूँ कि मैं 'इश्क़ हूँ
मुझे क्या नवेद विसाल की मुझे क्या ख़बर तिरे हाल की
मुझे कब नसीब हुआ सकूँ कि मैं 'इश्क़ हूँ कि मैं 'इश्क़ हूँ
नहीं कोई मुझ में कसर नहीं नहीं कोई मुझ में कमी नहीं
नहीं बन सकी मिरी बात यूँ कि मैं 'इश्क़ हूँ कि मैं 'इश्क़ हूँ'
----अम्मार इक़बाल