कलियुग का एक नियम है —
जितना अटूट होगा विश्वास,
उतना ही भयंकर होगा विश्वासघात।
और फिर भी —
मैंने उसे ईश्वर समझा।
अपने भीतर की चुप्पी को
उसके चरणों में अर्पित किया
जैसे स्त्री…
अपने प्रथम प्रेम को ईश्वर की तरह पूजती है —
निस्पंद, निष्कलंक, निर्लज्ज।
पर कलियुग की हवा
श्रद्धा के दीप नहीं जलने देती।
और मैंने देखा —
वो, जिसे मैंने “अंतिम सत्य” कहा,
वही
मेरे भीतर की सबसे पवित्र जगह से
सबसे पहला पत्थर फेंक गया।
क्या यह मेरा अपराध था —
कि मैंने आँखों में झाँका
और आत्मा को खोल दिया?
क्या मेरा दोष था —
कि मैं मौन रही,
पर उसने मेरी चुप्पी को सहमति समझ लिया?
किसी ने कहा था,
कलियुग में —
विश्वास से बड़ा कोई मूर्ख नहीं होता।
और अब मैं —
मूर्ख नहीं रह गई।
बस — स्त्री रह गई हूँ।
उस स्त्री की तरह
जो अब रोती नहीं,
बस — शांति से जलती है
जैसे कोई यज्ञ
जिसमें अग्नि भी मौन है
और आहुति भी।
मैंने अपने विश्वास का अंतिम संस्कार किया —
बिना किसी शोकगीत के।
अब वहाँ एक समाधि है —
जहाँ लिखा है:
“यहाँ वह स्त्री सोई है
जो किसी के लिए ईश्वर बन गई थी
और बदले में शून्य बनकर लौटी।”
मैं अब भी प्रेम कर सकती हूँ,
पर विश्वास नहीं करूँगी।
क्योंकि —
विश्वास अब केवल ईश्वर के योग्य है,
मनुष्य के नहीं।

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



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