हूं धूल का फूल
मुझे सर पर चाहिए
ताज नहीं ।
कद्रदान तो लाख मिलेंगे
वरना ये बंदा झूठ मूठ
के तारीफों का रहा कभी
मोहताज़ नहीं।
तुम साथ ना दो मेरा
चलना मुझे आता है।
झूठ मूठ की तारीफ़
करना नहीं मुझे आता है।
किसी के कहने से क्या होता है
होता वही है जो आदमी के मुकद्दर में
लिख होता है।
लकीरों के रूख बदने वाले
खुद हीं गुमनाम हो गए।
जीवन की ऊबड़ खाबड़ राहों में
कहीं जाम हो गए।
लगा ली लाख़ जुगत जितने की
होगा क्या उनका जिनकी नसीब
है फितने की।
बदलनी होती हैं राहें तो खुद हीं
बदल जाती हैं ।
है वह परवरदिगार मालिक सिर्फ़
उसकी हीं मर्ज़ी चलती है।
आदमी की औकात तो आदमी
जनता ज़रूर है
फिरभी उछलता रहता बनता खुद हीं
लंगूर है..
क्या करिएगा साहब जब कुछ लोग
अपनी आदत से मजबूर हैं ।
ये मज़बूरी नहीं बल्कि ये तो उनकी
फितूर है..
लोग आजकल के यारों बड़े हीं चतुर हैं
बच कर रहना संभलकर चलना
लोग बनातें यारों मूर्ख हैं
लोग आजकल के बड़े हीं चतुर हैं...
लोग बनातें यारों मूर्ख हैं