क्या लेकर आए थे जब रोते हुए आए थे?
न कपड़ा था तन पे, न साँसों पे कोई छायें थे।
फिर इतना घमंड क्यों, ये तिजोरियों का ताज?
खुद की मिट्टी भूल गए, जब बन बैठे आज के राज!
खून पीकर रिश्तों का तुम दौलत से लदे हो,
माँ की ममता बेच आए, अब बापू भी खड़े हो?
भाई को दीवार बना, बहन को दहेज किया,
फिर कहते हो, “हमने बड़ा ‘कुल’ सहेज लिया!”
राम का नाम भी लिया, और व्यापार भी किया,
मंदिर में सिर झुकाया, मन का बाज़ार भी जिया।
कब्रों से डरते नहीं, लाशों पे सौदे करते,
ये कैसे इंसान हो, जो ज़हर भी पूजा करते?
शब्दों में शांति रखते, छुरी जेब में छुपाते,
कफ़न पे भी टैग लगा के धर्म-धंधा चलाते।
मालूम है? सब छूटेगा — ये नाम, ये शोहरत सारी,
जिस दिन साँसें टूटेंगी, रह जाएगी बस लाचारी।
न कोई ताज साथ जाएगा, न बैंक बैलेंस हँसेगा,
बस कर्मों का एक पन्ना ही, विधाता रोज़ पढ़ेगा।
तो सुन ऐ मानव! मत भूल अपनी औक़ात को,
जो धरा पर आया है, वो लांघेगा भी घात को।
ना तू राजा, ना तू रंक — बस वक़्त का एक किरदार,
क्या लेकर आया था? बस एक नंगी सी पुकार।
क्या लेकर जाएगा? एक आख़िरी चीख़ भर,
बाक़ी सब रह जाएगा — यह महल, ये स्वर्ण, ये घर।