क्या कृपा सिर्फ भाग्य है, और कर्म सिर्फ प्रयास?
या दोनों एक ही रेखा के दो छोर हैं?”
“कृपा और कर्म,
जैसे नदी और नाव —
नाव चलानी तुम्हारी ज़िम्मेदारी है,
पर हवा चलाना उसकी कृपा है।”
कर्म: मेरे हाथों का विज्ञान
मेरे संकल्प का परिणाम।
मेरी चेतना की चाल।
जो मैं बोती हूँ, वही उगता है।
“मैं मेहनत करूँगा, तो फल मिलेगा
ये सूत्र है जीवन का।
लेकिन कभी-कभी,
हर प्रयास के बाद भी
फल नहीं मिलता।
तब हम टूटते हैं।
और वहीं…
कृपा की भूमिका शुरू होती है।
कृपा उस अनदेखे की छाया
जब सबकुछ किया,
फिर भी कुछ नहीं हुआ —
तब भीतर से कोई कहता है:
“अब तू हट, अब मैं हूँ।”
कृपा कर्म को ख़ारिज नहीं करती,
वो उसे पार कराती है।
जैसे कोई बच्चा सीढ़ियाँ चढ़े,
पर अंतिम सीढ़ी पर पिता उठाकर गोदी में ले ले।
“कर्म से चढ़ा,
कृपा से पहुँचा।”
कृपा और कर्म कोई विरोध नहीं
हमने ही इन्हें बाँट दिया:
कर्म = पुरुषार्थ
कृपा = भाग्य
पर सच्चाई यह है —
कर्म तुम्हें रास्ते पर रखता है,
और कृपा तुम्हें मंज़िल तक पहुँचाती है।
जहाँ हाथ कर्म करते हैं, और हृदय कृपा के आगे झुकता है
कर्म बिना कृपा अधूरा है।
और कृपा बिना कर्म —
अधिकारहीन।
“बिना हल जोते खेत नहीं उगता,
पर बारिश भी बिना खेत सूखा रह जाता है।”
कर्म मेरा समर्पण है,
कृपा उसकी स्वीकृति।
जब दोनों एक हो जाएँ,
तभी जीवन शांति पाता है।