तुम्हें पाने का सनम, ख़्वाब भी ख़्वाब रह गया..
आसमां खो गया, पिघलता आफ़्ताब रह गया..।
कभी तो चमन में थीं, हर वक़्त रुकी हुई बहारें..
अब उदास गुल, और रोता हुआ ग़ुलाब रह गया..।
यूं तो वक्त ने हर गुनाह का, हिसाब लिया मगर..
खुदा की ज़ानिब से, बाकी क्या अज़ाब रह गया..।
मेरे जाते वक्त कुछ, उदास चेहरे भी थे आसपास..
लगता है शायद उनका, कुछ बाकी हिसाब रह गया..।
मेरे सर पर अब कुछ और, इल्ज़ाम बाकी ना रहा..
बस एक तेरी ज़फा का, सर पर ख़िताब रह गया..।