पढ़ लिया हमने ग्रंथ अनोखे,
ज्ञान-ज्योति से दीप संजोखे।
किंतु मन के कोने सूने थे,
स्वप्न अधूरे, धागे टटोखे।।
डिग्री आई, सपने आए,
भीड़ में फिर हम भी समाए।
तन को सुख था, मन को शंका,
क्या सच में अब कुछ भी पाए?
नौकरी मिली, बस तनखा आई,
पर अंतर्मन फिर भी घबराई।
हर सुबह समय पर जागे हम,
पर आँखों में नींद न समाई।
लंचबॉक्स और मीटिंग भारी,
हर साँझ लगे जीवन खारी।
सीढ़ियाँ चढ़ीं, पद मिलते गए,
पर खोती गईं मुस्कानें सारी।
भीड़ के संग चलना सीखा,
पर भीतर कोई मौन चुपा।
बाहर हँसी, भीतर प्रश्नों की,
जैसे कोई ज्वालामुखी दबा।
कहाँ गई वो उन्मुक्त हवा?
वो नीली आँखों वाली दिशा?
जो पूछा करती थी मन से –
“क्या यही है जीवन की अभिलाषा?”
अब हम हैं पर पहचान नहीं है,
जीवन है पर जान नहीं है।
शब्दों से भरा है यह जीवन,
पर भावों में रस-गान नहीं है।
फिर भी यह ज्वाला बुझी नहीं है,
अंदर कोई मशाल जली है।
नव निर्माण की पुकारें हैं,
हर राख तले कोई कली है।
जीवन चलेगा, बढ़ता जाएगा,
पथ में सत्य चमक दिखाएगा।
पढ़ाई हो या हो रोज़ी-रोटी,
अंत में मन ही मन को पाएगा।

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



The Flower of Word by Vedvyas Mishra




