कहाँ गई मेरी मैना, जो हर भोर गाती थी?
फूलों के रस में भीगी, जो नन्हीं लोरियाँ लुटाती थी।
चंपा की शाखों पर बैठी, कुछ राज़ बताती थी —
अब सूने हैं वो पत्ते, अब चुप सी छाया छाती है।
क्या मैना रूठ गई मुझसे? या खो गई किसी मेले में?
या थक गई उड़ते-उड़ते, उस धुएँ भरे से ठेले में?
कभी तो वो उड़ती थी खुली, नीले नभ के प्याले में —
अब देखो — गगन भी धुँधला है, मैना नहीं उजाले में।
न माँ ने उसको बुलाया आज, न दादी ने दाना डाला,
पेड़ भी सूखे खड़े रहे, न नीम ने चुटकियाँ मारा।
कूड़ा, प्लास्टिक, शोर बहुत — क्या मैना डर के भागी है?
या हमने ही उसकी भाषा अब, कानों से दूर भगाई है?
ओ बस्ते वाले बच्चो! क्या तुमने भी उसे न सुना?
जो कहती थी — “सुनो ज़रा! धरती है एक गीत बना।”
अब स्कूल की दीवारों में बस, चित्र बचे हैं पंखों के,
वो उड़ानें, वो तानें — सब खो गई हैं अंखों के।
चलो! हम सब मिलकर एक रोज़ — फिर पेड़ लगाएँ प्यारे,
जहाँ मैना लौटे, नाचे — गाए गीत हमारे।
न शोर हो, न धुआँ कोई — बस हवा में खुशबू बहे,
और मैना कहे — “मैं आई!” फिर सपनों में भी वह रहे।