कभी मिलकर देख मुझे, मेरी जगह से,
ख़ुद पे शर्म आएगी तुझको भी नज़र से।
मैंने रिश्तों की तपिश सीने में झेली,
तू तो बच निकला हर एक अल्फ़ाज़ के डर से।
तेरी हर बात को सच मान भी लूं मैं,
फिर भी टूटूं न कैसे तेरी नज़र से?
तूने पूछा था कि मैं चुप क्यों रहता हूँ,
अब तो बोलूं भी तो कांपूं तेरे असर से।
तूने जो मुझको कभी ख़ुद में समेटा था,
आज वो लम्हे भी छूटे किसी सफ़र से।
क्या गुनहगार थी मैं, जो तुझसे मोहब्बत की,
या सज़ा मिलनी थी बस यूँ ही बे-ख़बर से?
कभी तो हिम्मत जुटा, नीचे उतर आ,
और देख मेरी दुनिया मेरी नज़र से।