जीवन: एक अंतहीन प्रश्न
हर मोड़ पर एक नया सवाल,
हर उत्तर में छिपा सवाल।
चलते-चलते सोचा हमने,
क्या जीवन सच में ख़याल?
कभी खेलों में बचपन बीता,
कभी सपनों के पीछे भागे।
जो पाया, उसमें चैन न आया,
जो खोया, उसे पल-पल जागे।
क्या यही है जीवन का मर्म,
हर सुख में भी कोई शोक भरा?
जो पास रहा, वह छूट गया,
जो दूर रहा, मन उसी पे अड़ा।
2. बचपन का असमंजस (खेल और अनुशासन का द्वंद्व)
माँ कहती—“पढ़, तुझे ऊँचा उड़ना है,”
बचपन कहता—“अभी तो खेलना है।”
किताबों के बोझ में बचपन दबा,
खुशियों का सूरज धुँधला सा लगा।
खिलौनों को देखा, किताबें उठाईं,
दोनों में जैसे जंग सी आई।
खेलूँ कि खुद को कैद करूँ,
मन के इस उलझाव में फँसता गया।
3. युवावस्था: सपनों और जिम्मेदारियों की जंग
सपनों की राहों पर बढ़ने चला,
पर कंधों पे जिम्मेदारी का भार पड़ा।
माँ-बाप की उम्मीदें भारी थीं,
खुद की चाहतें भी प्यारी थीं।
दिल ने कहा—“चलो, उड़ चलें,”
दुनिया ने कहा—“पहले ज़मीन देखो।”
हाथों में कैद कुछ अरमान थे,
मन के भीतर कई तूफान थे।
4. प्रेम और रिश्तों की कश्मकश (बंधनों में स्वतंत्रता की तलाश)
प्यार किया तो त्याग माँगा,
त्याग किया तो जीवन तन्हा।
रिश्तों के धागे मजबूत भी थे,
पर हर गाँठ में प्रश्न अटका।
क्या पास रहकर भी कोई दूर हो सकता है?
क्या प्रेम बिना त्याग के पूरा हो सकता है?
जो दिल में था, वो शब्दों में आया नहीं,
जो शब्दों में आया, वो दिल तक गया नहीं।
5. सफलता बनाम आत्मसंतोष (दौलत की दौड़ या मन की शांति?)
हर सुबह एक नई दौड़,
हर रात एक अधूरी तलाश।
जो पाया, उसमें सुकून नहीं,
जो नहीं मिला, उसी की आस।
नाम बड़ा हुआ, पर चैन चला गया,
दौलत आई, पर नींद खो गई।
रुतबा मिला, पर रिश्ते छूटे,
जो सच में अमीर था, वो गरीब हो गया।
6. मध्यम आयु: बीते कल और आने वाले कल का संग्राम
अब जब दौड़ पूरी होने को है,
तो समझ नहीं आता—क्या जी लिया?
जो कमाया, उसे भोग न पाया,
जो पाया, उसका मोल न समझा।
बीते कल का अफ़सोस है,
आने वाले कल का डर भी है।
जो समय था, उसे थामा नहीं,
जो बचा है, वो भी फिसल रहा है।
7. बुढ़ापा: स्मृतियों की गठरी या शेष जीवन की उलझन
अब चलने को जीवन तैयार है,
पर पीछे यादों की बौछार है।
जो अपनों के बीच राजा था,
आज चौखट पर लाचार है।
बीते दिनों को सोच रहा हूँ,
कि क्या सच में जी लिया?
या बस निभाता गया जीवन को,
जैसे कोई उधार लिया?
8. मृत्यु: जीवन का सबसे बड़ा द्वंद्व
जिससे भागा, वही पास आया,
जिसे ठुकराया, वही साथ आया।
मृत्यु को जीवन भर ठुकराया,
पर उसने अंत में गले लगाया।
क्या सच में जीवन यहीं तक था?
या मृत्यु भी एक नया द्वार थी?
जो प्रश्न जीवन ने सुलझाए नहीं,
शायद मृत्यु में वही पुकार थी।
9. क्या जीवन सच में एक छलावा है? (समापन चिंतन)
जो चाहा, वो मिला नहीं,
जो मिला, उसमें सुकून नहीं।
हर द्वंद्व का उत्तर खोजा,
पर जीवन ने उत्तर दिया नहीं।
शायद जीवन कोई पहेली नहीं,
बल्कि एक बहती नदी है।
हम बस किनारे खड़े मुसाफ़िर हैं,
जो बहाव को समझते नहीं।
तो फिर सवाल यह नहीं कि जीवन क्या है?
सवाल यह है—हमने इसे जिया कैसे?
समाप्ति:
“द्वंद्व से भागो मत, उसे समझो।
क्योंकि हर प्रश्न का उत्तर जीवन में ही छिपा है।”