वो औरत जो चुप है, सब सुन रही है,
तुम्हारे ही भीतर कहीं गुन रही है।
न काजल, न बिंदी, न नज़रों की वाशा,
वो अब आईनों से नहीं छन रही है।
न प्रेम में घुलकर वो चीनी रही है,
न रिश्तों की रोटी ही सेंक रही है।
तुम कहते हो — “उसमें अब ममता नहीं है”,
असल में वो अपनी ही माँ बन रही है।
वो हँसती नहीं — ये तुम्हारी शिकायत,
वो रोई थी कब तक — ये गिन रही है।
तुम बोले — “बदल गई है बहुत अब”,
अजी हाँ! वो अब ‘ख़ुद’ ही बन रही है।
जो पहले थी राधा — अब काली हुई है,
तुम्हारी धधकती कुटिल दृष्टि सही है।
वो पूजा नहीं — न ही प्रतिमा रही है,
वो स्त्री है — जो साँसों में जल रही है।
उसे ‘मैं’ कहने दो, उसे ‘ना’ कहने दो,
वो अपनी ही भाषा में पल रही है।
तुम्हें जो लगे ‘अहं’, वो असल में ‘स्वीकृति’,
तुम्हें जो लगे ‘ज़हर’, वो हल रही है।