सूनी ए राहें पुकारें रे
बचपन 'खो' गया कहां रे
भटक भटक के थके ए तन रे
सुकूँन की सूरत दिखें कहां रे
करूणा की बेला सजी रे
सिख नसियत में धूप कहां रे
भेद भरम में धर्म है रोता रे
समाज के आंखों में शर्म कहां रे
अमीरी गरीबी लड़े रे
बेबशी बेहाली करुणा भरे रे
मानव मानव उलझे रे
क्यों बने 'दानव' समझ नहीं रे
आज यहां कल 'खो' गया रे
अंजाना बहे चक्र, रुके कहां रे