जब से उसके रंगों में रंगी लगता मैं, मैं थी हीं नहीं
फिर कोई और रंग मुझ पर कभी चढ़ा हीं नहीं
ये अलग बात इज़हार-ए-उल्फत नहीं किया मैंने
उसने भी मेरी ख़ामोश निगाहों को कभी पढ़ा हीं नहीं
अपने हिस्से के बादल को निर्निमेष तकती रहती थी
रंग तो था उसमें भरपूर मगर मुझपर कभी बरसा हीं नहीं
रात थी अमावस की और मैं बावली हो कर
कहती फिरती रही आज तो चांँद आया हीं नहीं