मेरे गुस्से से मुझको यार भांपते हो
ऊपर से हीं क्यों ...
मेरे अंदर क्यों नहीं झांकते हो।
कभी फुर्सत में मुझको पढ़ना ज़रूर
इतने गहरे गहरे ज़ख़्म हैं की तुम
इन्हें नापना जरूर....
फिर तुम बताना है ये दिल क्यों मजबूर
है क्यूं ये उदास हर पल
है क्यूं ये सबसे दूर दूर..
अधिकारों की लड़ाई में
हम क्षीण पिछड़ गए
की बनते थे हमदर्द कईं
वो बारी बारी बिछड़ गए।
जीवन की कथन राहों पर
अकेला मुझे छोड़ गए
अब तुम ये बताना
साथ ना दिया ये ज़माना
फिर दिल ये मेरा उदास
क्यों न होगा
ढूंढेगा कोई मित्र
ढूंढेगा कोई दोस्ताना
पर मिल कर नहीं हैं राज़ी
लोग यहां...
तो फिर ये अकेला दिल
बाहर हीं पड़ा रहता है।
एक हारे हुए सिपाही की तरह
वार पे वार करता है।
कभी गुस्साता
तो कभी झुलझुलता
इसलिए कभी गुस्सा तो कभी
झुलझुलाता.._