ज़िंदगी की किताब के, पन्ने पलटते–पलटते..
कहां आ गए, वक्त के दरिया में बहते–बहते..।
कभी फितरत ने न माना, कभी माहौल जुदा..
हर बार रह गए हम, बात दिल की कहते–कहते..।
ये ज़िंदगी तो, उसूलों से परे की है चीज़ कोई..
अब भी जान जाइए, इस दुनिया में रहते–रहते..।
काश हमें वक्त पे, उनके सितम नज़र आ जाते..
अब तो आदत सी हो गई है, उनको सहते–सहते..।
वो आदमी तो ना जाने किस बुनियाद पर टिका है..
हर दफ़ा अपना वज़ूद, थाम लिया है ढहते ढहते..।
पवन कुमार "क्षितिज"