मैंने वक़्त की दीवार पर
एक दबी हुई चीख़ टाँगी थी—
किसी ने नहीं पढ़ी,
क्योंकि मेरी आवाज़
मर्द की थी।
मैं चाहता था
कभी-कभी बस
टूट जाने की इजाज़त,
बिना ये सुने कि—
“मर्द हो… मज़बूत बनो।”
राशा,
कभी सोचता हूँ
कि मेरी आँखों में भी
एक समंदर पलता है,
मगर उसे बहने की नहीं,
सिर्फ़ सूखने की इजाज़त है।
मेरे भीतर
एक थका हुआ आदमी है—
जिसने सपनों को बेचकर
रात की रोटियाँ जुटाईं,
और फिर भी हँसता रहा
क्योंकि आँसुओं का हक़
कभी दिया ही नहीं गया।
मैंने अपने दुख
तकिए के नीचे दबा लिए,
डायरी के अधूरे पन्नों में
कभी नाम लेकर नहीं लिखा,
क्योंकि डर था—
कहीं कोई पढ़ न ले
एक मर्द का रोना।
रात जब सन्नाटे की चादर ओढ़ती है,
मैं दीवारों से बातें करता हूँ,
और दीवारें भी
मुझे घूरकर चुप हो जाती हैं,
जैसे कह रही हों—
“तू मर्द है…
कमरे को मत गीला कर।”
राशा,
सुबह होते ही
मैं फिर वो मुखौटा पहन लेता हूँ
जिस पर समाज ने लिखा है—
“सहज, संयमी, अडिग”।
और दिन भर
एक अदृश्य युद्ध लड़ता हूँ—
अपने ही भीतर के
भीगे मैदानों में।
काश, कोई समझे—
कि मर्द भी रोता है,
पर उसकी रुलाई
इतनी भीतर दबा दी जाती है
कि वो कविता नहीं बनती,
बस
एक चुप्पी की परछाईं बनकर
ज़िंदगी भर साथ चलती रहती है।
-इक़बाल सिंह “राशा”
मानिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड