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The Flower of WordThe Flower of Word by Vedvyas Mishra The Flower of WordThe novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra

कविता की खुँटी

        

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Dastan-E-Shayara By Reena Kumari Prajapat

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The novel 'Nevla' (The Mongoose), written by Vedvyas Mishra, presents a fierce character—Mangus Mama (Uncle Mongoose)—to highlight that the root cause of crime lies in the lack of willpower to properly uphold moral, judicial, and political systems...The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra

कविता की खुँटी

                    

इक़बाल सिंह “राशा“ की कविता “पुरुष की विवशता”

मैं पुरुष, हाँ, मैं पुरुष!
आकाश की रीढ़ सा तनकर खड़ा,
धरती की छाती पर बोझ लिए,
बिना किसी शिकायत के चलता रहा।
मुझे बनाया गया,
एक ऐसा दीपक जो जलता रहे,
पर जिसकी लौ कभी काँप न सके।

हर सुबह मैं सूरज के संग निकलता,
मिट्टी में अपना पसीना गाड़ता,
और रात की चादर तले
खुद को निचोड़ता।
मेरे सपने?
वे सूखे पत्तों से,
जो हर झोंके पर बिखर जाते हैं।

“पुरुष पत्थर है!”
यह कहते हैं सब,
पर कौन देखता है पत्थर के भीतर,
जहाँ एक दरार से उभरती पीड़ा
एक ज्वालामुखी सी तपती है।

मुझे हँसना है जब मैं जल रहा हूँ,
मुझे सहना है जब मैं गल रहा हूँ।
मैं वह धूप का पेड़ हूँ,
जिसकी छाया सबके लिए है,
पर जिसकी जड़ें
अकेलेपन में रोती हैं।

कभी-कभी, जब रात की चुप्पी
मुझसे सवाल करती है,
तो मन होता है,
कि अपने शब्द
खुले आकाश में चीख दूँ।
पर मेरी आवाज़
सन्नाटे में गुम हो जाती है,
जैसे कोई नदी
रेगिस्तान में मर जाती है।

ओ समाज!
तूने मुझे पर्वत कहा,
पर यह क्यों न देखा,
कि हर पर्वत भीतर से
खुद ही टूटता है।
मैं चलता हूँ,
पर रुकने की इजाज़त नहीं।
मैं जलता हूँ,
पर बुझने की आज़ादी नहीं।

अब मुझसे मत कहो,
“तू रो नहीं सकता,”
क्योंकि आँसू भी अब
मुझसे कतराते हैं।
मेरे मौन की गूंज सुन,
मेरे दर्द को पढ़,
यह पत्थर भी
आख़िर इंसान है।

पुरुष के सपनों का कोई घर नहीं,
पुरुष के आँसू का कोई सागर नहीं।
जो रोशनी सबको लुटाता है,
उसकी अपनी रातें कभी उजागर नहीं।

-इक़बाल सिंह” राशा”
मनिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड




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रचना के बारे में पाठकों की समीक्षाएं (4)

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मनोज कुमार सोनवानी "समदिल" said

पुरूष एक ऐसा जलता दीप है जिसकी लौ कांपती नहीं। पुरूष के सपनों का कोई घर नहीं।हर पर्वत भी अंदर से टूटता है, जलते हुए हंसना, लगते हुए सहना,सब कुछ सहकर भी शिकायत नहीं करना। पुरूष के हृदय में उठती अंतर्नाद को सहज सरल भाषा में चित्रित किया है आपने। रचना के लिए हृदय से बधाई बधाई बधाई।👌👌🌹🙏

इक़बाल सिंह “राशा“ said

धन्यवाद मनोज समदिल जी

प्रभाकर said

इस कविता में अपने पुरुष के अंतर की गहराई से मीमांसा की है और पुरुष के दुःख दर्द पीड़ा अपितु विवशता को आप अच्छी तरह जानते है और उसी भाव को आपने व्यवस्थित शब्दों में उतारा है बहुत खूब 👌

इक़बाल सिंह “राशा“ said

बहुत बहुत धन्यवाद प्रभाकर जी

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