मैं पुरुष, हाँ, मैं पुरुष!
आकाश की रीढ़ सा तनकर खड़ा,
धरती की छाती पर बोझ लिए,
बिना किसी शिकायत के चलता रहा।
मुझे बनाया गया,
एक ऐसा दीपक जो जलता रहे,
पर जिसकी लौ कभी काँप न सके।
हर सुबह मैं सूरज के संग निकलता,
मिट्टी में अपना पसीना गाड़ता,
और रात की चादर तले
खुद को निचोड़ता।
मेरे सपने?
वे सूखे पत्तों से,
जो हर झोंके पर बिखर जाते हैं।
“पुरुष पत्थर है!”
यह कहते हैं सब,
पर कौन देखता है पत्थर के भीतर,
जहाँ एक दरार से उभरती पीड़ा
एक ज्वालामुखी सी तपती है।
मुझे हँसना है जब मैं जल रहा हूँ,
मुझे सहना है जब मैं गल रहा हूँ।
मैं वह धूप का पेड़ हूँ,
जिसकी छाया सबके लिए है,
पर जिसकी जड़ें
अकेलेपन में रोती हैं।
कभी-कभी, जब रात की चुप्पी
मुझसे सवाल करती है,
तो मन होता है,
कि अपने शब्द
खुले आकाश में चीख दूँ।
पर मेरी आवाज़
सन्नाटे में गुम हो जाती है,
जैसे कोई नदी
रेगिस्तान में मर जाती है।
ओ समाज!
तूने मुझे पर्वत कहा,
पर यह क्यों न देखा,
कि हर पर्वत भीतर से
खुद ही टूटता है।
मैं चलता हूँ,
पर रुकने की इजाज़त नहीं।
मैं जलता हूँ,
पर बुझने की आज़ादी नहीं।
अब मुझसे मत कहो,
“तू रो नहीं सकता,”
क्योंकि आँसू भी अब
मुझसे कतराते हैं।
मेरे मौन की गूंज सुन,
मेरे दर्द को पढ़,
यह पत्थर भी
आख़िर इंसान है।
पुरुष के सपनों का कोई घर नहीं,
पुरुष के आँसू का कोई सागर नहीं।
जो रोशनी सबको लुटाता है,
उसकी अपनी रातें कभी उजागर नहीं।
-इक़बाल सिंह” राशा”
मनिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड