बेटी के दर्द का बोझ
वक़्त साथ है, तो हर जगह सुरक्षित है
वक़्त साथ नहीं है तो
हर घर ,हर गली ,हर शहर
हर पल ,हर क्षण ख़ौफ है
आज न डर गर्भ में बेटी के भ्रूण हत्या का है
न दहेज की आग में जल रही बेटियों का है
आज डर बेटी को घर से बाहर भेजने का है
आज डर बेटी पर नज़र गड़ाए लोगों का है ।
समाज में ऐसी दरिंदगी देख कर
मन में एक ही सोच आती है
क्या ?बेटी को गर्भ में मारना ही सही था
क्या ?सती प्रथा ही सही थी
दर्द जैसा भी क्यों न हो
उसके आँसू होते बेटियों की ही आँखों में हैं
कोई उम्र नहीं देखते ये दरिंदे
चीर चाहे माँ का हो ,बहन का हो या हो फिर किसी की बेटी का ।
दुःख का क्या है
जिसका जितना रिश्ता उसको उतना दर्द
कुछ मोमबत्ती जला कर अपना साथ दिखा जाएँगे
कुछ अपनी राजनीति का खेल खेलेंगे
कुछ धरने लगाएँगे
कुछ घर बैठे लोग समाज के प्रति संवेदना जताएँगे
कुछ रिश्तेदार लड़की की ही कमी बता जाएँगे
अन्त में सब भूल जाएँगे ,अपनी अपनी राह निकल जाएँगे
रह जाएँगे उस बेटी के माता पिता जो अपनी आख़िरी साँस तक इस दर्द का बोझ उठाएँगे..
वन्दना सूद