वह हमारे धैर्य को
हमारी कमज़ोरी समझ रहा है
उसके पेट में अन्न नहीं पर
शॉपिंग को जा रहा है।
मांग मांग कर उधार
वह उधारी लाल बन गया है
धर्म की आड़ में वह जद्दोजहद
कर रहा है।
मार कर इंसानियत को ना जाने क्या
पा रहा है।
बस राजनीति के खेल में देशों की
जनता पीस रही है
हुक्मरानों की तो बस बांछें हीं खिल
गईं हैं।
झूठी शान संप्रभुता के नाम पर सारा खेल
चल रहा है
दोस्तों अब तो आतंक की आग में
संपूर्ण विश्व जल रहा है।
अरे कहीं प्राकृतिक आपदाएं
तो कभी ऐसे तो कभी वैसे
लोग मर रहें है उसके वावजूद भी
लोगों को लोग मार रहें हैं।
अपनी अंतरात्मा को जैसे खुद
खून कर रहें हैं ।
वो तो महलों में सुरक्षा में मस्त हो
रहें हैं और आदमी कहीं के भी हों
जान माल का नुकसान सह रहें हैं
सबकुछ तो बच जाता यहां यारों बस
इंसान और इंसानियत खत्म हो रहें
इंसान और इंसानियत खत्म हो रहें हैं..

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



The Flower of Word by Vedvyas Mishra




