ओ ढोंगी साधु,
तूने धरा है भेष सन्त का।
मन में विष पाल रखा,
मुख से निकलता अमृत का बांध।
धर्म के नाम पर ,
करते हो तुम व्यापार।
लोगों को ठगता है ,
तेरा ये बड़ा अकार।
माला जपता है,
तू दिन रात।
मन में लोभ और क्रोध,
छिपा है बड़ा बात।
दिखावा करता है तू,
पवित्रता का।
अंदर से खोखला है,
तेरा चरित्र।
गरीबों को लूटता है,
अमीरों को चाटता है।
धर्म का ढाल बनाकर,
सबको ठगता है।
समाज में फैलाता है,
नफरत का बीज।
बांटता है लोगों को,
जाति और धर्म के नाम पर।
तूने धोखा दिया है,
भोले-भाले लोगों को।
खोया है उनका विश्वास,
तूने ही तो।
शास्त्रों का ज्ञान है तेरे पास,
लेकिन कर्मों से तू, बहुत दूर है।