तू क्या, तेरे इश्क़ का लब्बो–लुआब क्या..
अधूरी नींदों के, पूरे होते फिर ख़्वाब क्या..।
वो जब रू–ब–रू हो, भरे शबाब में अपने..
तो फिर आसमां में टंगे, हज़ार महताब क्या..।
तुझसे इश्क ही जब, कोई गुनाह हो गया तो..
बाकी इस जहाँ में रह गया, फिर अज़ाब क्या..।
ज़माना मुझसे, सवाल पे सवाल किए जाता है..
उसे खुद ही मालूम नहीं, है उनका जवाब क्या..।
तेरी खुश्क आंखों में, जो कतरा–ए–आब देखा..
उफनते दरिया में जो आया, फिर वो सैलाब क्या..।
अपने हर एक एहसान को, लिखा बहियों में उसने..
हमारे मिटने पर भी न मिटा, ऐसा था हिसाब क्या..।
सोई हुई जमातों में, इक सन्नाटा सा है पसरा हुआ..
जगाने को ए–हिंद पुश्तों को तेरी, अब होगा इंकलाब क्या..।
पवन कुमार "क्षितिज"