हर नया दिन एक साज़िश है, तन्हा कर देने की,
जैसे किस्मत ने क़सम खाई हो, कुछ न कहने की।
मैं जो निकला था एक मंज़िल की तलाश में कल,
आज भी लौटा उसी रस्ते से, बे-सबब बहने की।
लोग कहते हैं ये मौका है, नज़दीक जाने का,
पर मुझे आदत पड़ी है, हर रोज़ बिखरने की।
लक्ष्य तो इक सपना है, जो आँखों में पलता है,
पर नींदें कहती हैं, ज़िद न कर, हारने की।
ज़िन्दगी! तू क्या चाहती है मुझसे आख़िर?
तेरी ख़ामोशी भी आदत है, रोज़ कुछ सहने की।
मैं तो हर रोज़ नये दिन से ये कहता हूँ: “चल,
इस बार तो कोई साज़िश न हो मरने की!”

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



The Flower of Word by Vedvyas Mishra




