हम और हमारी यात्रा
अब,
दिये से सौर ऊर्जा
सहयोग से खर्चा
संस्कृति सभ्यता संस्कार से
अर्धनग्नता स्वार्थ गाली-गलौज
तक के विकास की कल्पना
यथार्त हो चुका है,
अब,
"वसुधेव कुटुम्बकम्"
धर्म जाति नफरत
के सियासी चाल तले
दबा चला जा रहा है,
अब,
बाकी है
इंसान का जंगली होना
जानवर बनना
नंगा होना
बिना रिश्तों का धूमना
और सिद्ध कर देना
हमारे पूर्वज जानवर थें
हमारे बुद्धि और विकास
की खोज की यात्रा
यहीं तक था।
रचनाकार
रामवृक्ष बहादुरपुरी
अम्बेडकरनगर उत्तर प्रदेश