किसी के आसरे जिन्दगी चल रही है।
अन्दर में भाव बेभाव से बदल रही है।।
जब भी आती उसकी याद की बदली।
तरबतर करने की क्षमता अचल रही है।।
नामंजूर उसका फैसला जब से किया।
दीवार सी तन गई मनहूस खल रही है।।
उसे समझ पाने की हिम्मत मुझमें नही।
उन्नति में स्त्री-बंदिशों की खलल रही है।।
बन रहा कुछ राहत का जरिया 'उपदेश'।
फरिश्तों की मनसा जैसे अटल रही है।।
- उपदेश कुमार शाक्यावार 'उपदेश'
गाजियाबाद