घूँघट के पीछे छिपा है जहाँ,
एक चेहरा जो जाने कब से थका है।
न आँखों में सपना, न होठों पे बात,
हर साँस में बस एक लंबी सज़ा है।
चूल्हे की आँच में झुलसी हुई हैं,
कितनी ही चाहें, कितनी ही बातें।
पलकों में कैद हैं बरसों की पीर,
ससुराल में मिट गईं बचपन की रातें।
कहा गया — “ये रीति है, सह लो”,
“औरत का धरम है, बह लो।”
सीता भी चली थी अग्नि पथ पर,
तो तू कौन है जो ठहर जाए?
हर रात बिना नाम की पीड़ा,
हर सुबह नई बोझ की ज़ंजीर।
न हक़ से बोलने की इजाज़त,
न सपनों की कोई ताबीर।
देह को पूजा गया, मन को ठुकराया,
अस्तित्व को केवल ‘घर’ में समाया।
पढ़ने की उम्र में बर्तन खनके,
खिलने से पहले ही जीवन बिखरे।
शिकायत करे तो “कलंक” कहाया,
चुप रहे तो “अच्छी बहू” कहाया।
कितनी बार वो टूटी, जुड़ी फिर,
पर हर बार सिर्फ़ औरत ही बनी।
अब भी समय है, सुनो इस सिसकी को,
मत बाँधो इन्हें बस परंपरा की डोरी।
इनकी भी धड़कनों में आग है,
बस ज़रूरत है थोड़ी सी रोशनी की।

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



The Flower of Word by Vedvyas Mishra




