क्योंकि भाभी आई थी —
सिर्फ़ साज-सिंगार नहीं,
साथ और सहारा बनने।
पर घर में पहले से
एक औरत बैठी थी —
जो हर रिश्ते पर
“पहले मेरा” का पट्टा लगाकर बैठी थी।
वो भाई की दोस्त थी,
माँ की बेटी,
पिता की दुलारी —
पर भाभी बनते ही उसे लगा,
कोई उसकी सत्ता छीनने आया है।
भाई का हँसना
अब “भाभी के इशारे” पर लगता था।
भाभी की चुप्पी
“घमंड” बन जाती,
और मुस्कराहट —
“दिखावा” कहलाती।
माँ अगर बहू से खुश हो जाए,
तो ननद को लगे —
“मेरी जगह कम हो रही है।”
और भाई —
वो बीच में फँसा कठपुतली बनकर रह जाए।
ननद के इशारे पर
घर की हवा बिगड़ती है,
भाभी की हर बात पर
कमी निकाली जाती है।
और धीरे-धीरे —
एक रिश्ता
जो प्रेम से बना था,
परिवार की ‘अहम की राजनीति’ में
दम तोड़ देता है।
“भाभी अगर बहन नहीं बन पाई,
तो ननद कभी बेटी क्यों नहीं बन पाई?”
शादी सिर्फ दो लोगों की नहीं होती,
पर उसे तोड़ने के लिए
एक ही ‘जहरीली ज़ुबान’ काफी होती है।
ज़्यादातर शादियाँ आजकल ननदों की टॉक्सिक दखल से टूट रही हैं…