वो जो क़िस्मत की ज़मीं थी, वो सींच भी न सके हम ठीक से, शौक़ तो जीने का था, मगर सबब (कारण) ज़ाहिर हो नहीं पाया।
किसी ने पूछा भी नहीं कि ये हाल क्यों हुआ है, वहाँ इंसाफ़ तो था, मगर ग़रीब हाज़िर हो नहीं पाया।
अरे वो रोटी जो पेट तक आते ही ठंडी हो गई, उस भूख का क़र्ज़ था सर पर, वो अदा हो नहीं पाया।
तमाम उम्र इंतज़ार किया एक छोटी सी मदद का, ज़माना गुज़रता रहा, मगर कोई चारागर (इलाज करने वाला) हो नहीं पाया।
हमने ख्वाब देखे थे कि औलाद को बेहतर देंगे हम, वो ख्वाब तो टूटा नहीं, बस मुकम्मल (पूरा) हो नहीं पाया।
वो जो झूठा इकरार था कुर्सी पे बैठे लोगों का, वहाँ ज़ुबान तो खुल गई थी, मगर वो सत्य वाक़ई हो नहीं पाया।
हम अपनी ही आरज़ुओं (इच्छाओं) के बोझ तले दब गए धीरे-धीरे, ज़िंदगी से शिकायत नहीं, बस सफ़र आख़िर हो नहीं पाया।
अरे वो तन्हाई तो अज़ल से थी, मगर ये ख़ामोशी गहन है, आख़िरी पल में भी वजूद उसका किसी को मालूम हो नहीं पाया।
- ललित दाधीच

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



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