मेरी पहचान पूछते हैं आप
एक ज़र्रे से ज़्यादा कुछ भी नहीं
मैं कौन हूं किसलिए हूं क्या हूं
मुझे ख़ुद को ये ख़बर कुछ भी नहीं !
छूने तो आसमान निकला था
उड़ान में न जाने क्या थी कमीं
वक्त ने सबक ये सिखाया है
आस्मां ख़ाब हक़ीक़त है ज़मीं!
अब अक्सर ऐहतियातन
मैं ज़मीं पे रहता हूं
देखता सब हूं मग़र
मुख्तसर ही कहता हूं!
ये ऐहतियात की हदें यारो
कभी कभी मैं भुला देता हूं
वक्त से रूबरू होने के लिए
अपने हर डर को सुला देता हूं!
वक्त से गुफ़्तगू होती है जब
लम्हे जब रूह गुदगुदाते हैं
मेरे ख्यालों के हंस मुझे
सैर अंम्बर की करा लाते हैं!
फ़लक की रौशनी में
ज़र्रा ये चमकने लगता है
सैर अंम्बर की करके
ज़र्रा गीत लिखने लगता है!
इत्तेफाकन आप जैसा
साहित्यिक मंच मिलता जब
रंग रंजित ये ज़र्रा
हो प्रकाशित दिखने लगता है!
अपने जज़्बात बयां करने को
इक कलम ही तो है ज़ुबान मेरी
मेरे ख्याल मेरी सोच मेरा चेहरा हैं
मेरे अकीदे हैं पहचान मेरी!
मैं इंसाफपरस्ती का
तरफदार हूं
सबकी थाली में रोटी का
तलबगार हूं
ज़िंदगी पे
सभी का एक सा हक है यारो
मैं इस अज़ीम फ़लसफ़े का
परसतार हूं!
ये फ़लसफ़े ये अकीदे
ये सोच ये पहचान
ज़हनी दर्रे से ज़्यादा कुछ भी नहीं
मेरी पहचान क्या कहूं यारो
एक ज़र्रे से ज़्यादा कुछ भी नहीं
एक ज़र्रे से ...............!
----रंजित दीक्षित