ज़िंदगी में दर्द के फिर तिलमिले हो जाएंगे,
एक दिन हम भी ग़मों के काफ़िले हो जाएंगे।
उफ़! तक भी ना करेंगे, रिवायतों के क़त्ल पर,
सोचा ना था कि इस क़दर बुज़दिले हो जाएंगे।
अगर मुस्कान की चादरों से देर तक पर्दा किया,
भीतर के ज़ख़्म फिर से पिलपिले हो जाएंगे।
उम्मीद जिन से थी, वही छाँव छीन ले गए,
अब सोचते हैं कब दरख़्त हम छिले हो जाएंगे।
जिन रिश्तों में कभी रूह की थीं गर्मियाँ,
अब वहीं साए भी संग दिलजले हो जाएंगे।
हर मोड़ पर आईने सवाल करते हैं यही,
कब तक झूठ ओढ़ें हम नाक़ाबिले हो जाएंगे।
‘ज़फ़र’ ना पूछ अब दिल का आलम क्या है,
कुछ और दिन जिए तो पत्थर के क़िले हो जाएंगे।
ज़फ़रुद्दीन 'ज़फ़र'
एफ - 413,
कड़कड़डूमा कोर्ट,
दिल्ली -32
zzafar08@gmail.com